कर्म प्रधान बिस्व करि राखा...


देवाः सुन्वन्तम् इच्छन्ति।
'देवता कर्मशील को चाहते हैं।'
-सामवेद


देवतागण न केवल विद्वान होते हैं, बल्कि कर्मशील भी होते हैं। अपनी कर्मशीलता के कारण ही वे परमात्मा के निकट होते हैं और वे परमात्मा का कार्यभार संभालते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो जो कर्मशील है वह ही देवता है। देवताओं का काम है - उन्हें सौंपे गये कार्य को सुचारु रूप से निभाना। कोई जल विभाग का प्रमुख है तो कोई विद्युत विभाग का। कोई पवन-देवता है तो कोई अग्नि-देवता।
देवताओं का कार्य-भार उनकी शक्ति, उनके सामर्थ्य और उनके कार्य-कौशल के अनुरूप होता है। हमारा सामाजिक ढाँचा भी इसी आधार पर खड़ा है। हमारे दैनिक जीवन में कार्य-वितरण का आधार भी यही है। हमारी नौकरी हमारी विद्या के अनुसार होती है, हमारा व्यवसाय हमारी कुशलता के अनुरूप होता है। तभी तो कोई डाक्टर है तो कोई ठेकेदार, कोई नेता है तो कोई अभिनेता।
जीवन और कार्य एक दूसरे के पूरक हैं। हमारा कार्य हमारे जीवन की पहचान बनता है। हमारा कार्य हमें प्रतिष्ठा देता है। हमारे कार्य से हमें मान्यता मिलती है। लेकिन हमारी वास्तविक सफलता हमारी प्रतिष्ठा में नहीं है, बल्कि अपने काम से मिलने वाली तृप्ति में है। देवतागण जानते हैं कि जिस निष्ठा के साथ हम अपना काम करते हैं, उसके स्तर में ही हमारा सुख होता है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या हैं - बिजनेस मैन हैं या सेल्समैन, व्यवसायी हैं या अफसर, घर-बच्चों की देखभाल में लगी हुई गृहणी हैं या किसी महिला-मंडल की प्रेसिडेन्ट। अपने काम से मिलने वाला सुख हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि है। रुचि और लगन के साथ किये गये हर कार्य में सुख होता है। आपका कार्य आफ सुख का एक बड़ा माध्यम है। सामवेद कहता है -

विश्वकर्मा विश्वदेवो महां असि।
सभी प्रकार के कार्य करने वाला देवों के सदृश महान होता है।


जो व्यक्ति किसी भी प्रकार के काम को करने से नहीं हिचकता, वह देवता है।

स्वर्गीय बावरा जी महाभारत से उद्धृत एक कहानी सुनाते हैं - महाभारत में धर्म-व्याध की कथा आपने सुनी होगी। एक ब्राह्मण कुमार घर से निकल करके तपस्या करने के लिए चल देता है। एक दिन एक चिड़े ने उड़ते-उड़ते उसके ऊपर बीठ कर दिया। बीठ उसके ऊपर गिरा तो उसने उसे देखा तो चिड़ा भस्म हो कर नीचे गिर गया। उसने सोचा, अब मामला बना है, तपस्या रंग लाई है। वहाँ से उसने निश्चय कर लिया कि अब सिद्धि मिल गई। वह एक बस्ती में गया और एक घर में जाकर उसने भिक्षा के लिए ‘नारायण हरि’ की आवाज़ लगाई। एक माँ ने अन्दर से आवाज़ दी - ठहरिए महाराज! अभी आ रही हूँ। थोड़ी देर रुक गया, फिर आवाज़ लगाई - ‘भिक्षां देहि।’ माँ ने आवाज़ दी, महाराज! ठहरिए - मैं अभी आ रही हूँ। थोड़ी देर रुका, फिर आवाज़ लगाई। देवी ने फिर आवाज़ दी, भगवन्! मैं आपसे निवेदन कर रही हूँ, ठहरिए! मैं अभी आ रही हूँ। उसको तो अपनी तपस्या का नशा था। वह कहने लगा तुम्हें पता नहीं, मैं कौन हूँ, मेरी अवहेलना कर रही है तू? अन्दर से वह देवी बोली, मुझे पता है लेकिन आप यह न समझना कि मैं वह चिड़ा हूँ जिसको आप देखेंगे और वह जल जाएगा। मैं वह चिड़ा नहीं, याद रखो, खड़े रहो वहीं, अभी आ रही हूँ। अब उसका तपस्या का नशा उतर गया। उसके मन में आया कि इसको घर बैठे कैसे पता चला कि जंगल में मैं चिड़ा जला आया हूँ। थोड़ी देर बाद वह भिक्षा लेकर आई। ब्राह्मण ने पूछा - देवी ! हमें भिक्षा तो बाद में चाहिए, पहले यह हमें बताओ कि तुम्हें कैसे पता चला कि मैं ने चिड़े को भस्म कर दिया। उसने कहा, मेरे पास इतना समय नहीं है कि आपको बताऊँ। आप अपनी भिक्षा लीजिए और यदि आपको इस विषय में जानना है तो अमुक शहर में चले जाइए,
वहाँ पर एक वैश्य रहते हैं, वह आपको बता देंगे।
वहाँ से वह सुदर्शन नाम का ब्राह्मण चला। नगर में वह वैश्य के पास गया, वह अपने व्यवसाय में लगा हुआ था। उसने देखा और कहा आइए! पण्डित जी! बैठ जाइए! वह बैठ गया। थोड़ी देर के बाद ब्राह्मण कहने लगा मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ। वैश्य ने कहा, जी हाँ - आपको उस स्त्री ने मेरे पास भेजा है क्योंकि आपने देखकर चिड़ा जला दिया है। अभी मेरे पास समय नहीं, यदि बहुत जरूरी हो फिर तो आप यहाँ से चले जाइए। अमुक नगर में एक व्याध रहता है, वह आपको सारी बात समझा देगा यदि मेरे से ही समझना हो तो सायंकाल तक इन्तज़ार करना पड़ेगा। ब्राह्मण को तो जल्दी थी, वह कहता है अच्छा! मैं उसी के यहाँ चला जाता हूँ। वह व्याध के पास गया तो वह मांस काट-काट कर बेच रहा था। व्याध बोला - आइए पंडित जी! बैठिए! आपको सेठजी ने भेजा है। कोई बात नहीं, विराजिए। अभी मैं अपना काम कर रहा हूँ, बाद में आपसे बात करूँगा। ब्राह्मण बड़ा हैरान हुआ। अब बैठ गया वहीं, सोचने लगा अब कहीं नहीं जाना, यहीं निर्णय हो जाएगा। सायंकाल जब हो गयी तो व्याध ने अपनी दुकान बन्द की, पण्डित जी को लिया और अपने घर की ओर चल दिया। ब्राह्मण व्याध से पूछने लगा कि आप किस देव की उपासना करते हैं जो आपको इतना बोध है। उसने कहा कि चलो वह देव मैं आपको दिखा रहा हूँ। पण्डित जी बड़ी उत्सुकता के साथ उसके घर पहुँचे तो देखा व्याध के वृद्ध माता और पिता एक पंलग पर बैठे हुए थे। व्याध ने जाते ही उनको दण्डवत् प्रणाम किया। उनके चरण धोए, उनकी सेवा की और भोजन कराया। पण्डित कुछ कहने लगा तो व्याध बोला - आप बैठिए, पहले मैं अपने देवताओं की पूजा कर लूँ, बाद में आपसे बात करूँगा। पहले मातृदेवो भव फिर पितृ देवो भव और आचार्य देवो भव तब अतिथि देवो भव, आपका तो चौथा नम्बर है भगवन्! अब वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि यह तो शास्त्र का ज्ञाता है। आपको कभी सौभाग्य मिले तो धर्म व्याध का प्रसंग पढ़ें, उसको व्याध-गीता कहते हैं। उसने तत्त्व ज्ञान का विवेचन किया है। महाभारत के अनेक रत्नों में उसका उपदेश भी एक रत्न है। जब ब्राह्मण ने पूछा कि आप इतने बड़े तत्त्वज्ञ होकर के इतना निकृष्ट कर्म क्यों करते हैं तो उसने कहा - भगवन्! कर्म कोई निकृष्ट नहीं होता। हम व्याध के यहाँ पैदा हुए हैं, मेरे बाप भी मांस बेचते थे, उनके बाप भी और यह धंधा हमें अपने पूर्वजों से मिला है, इसलिए हमें इससे कोई घृणा नहीं है क्योंकि जब तक इस दुनिया में कोई मांस खाने वाला होगा तो उसके लिए बेचने वाला भी होगा।
देवता किसी भी कर्म को छोटा नहीं समझते।
कर्म छोटा नहीं होता, कर्म बड़ा नहीं होता - कर्म तो कर्म होता है। कर्म का महत्त्व उसके पीछे छिपे हुए अभिप्राय से होता है। जो कर्म लक्ष्य के साथ जुड़ जाता है, वह योग बन जाता है।

एक धनपति था - प्रतिदिन वह घी का दिया जलाकर मन्दिर में रख आता था। एक निर्धन व्यक्ति था। वह हर शाम को सरसों के तेल का एक दीपक जला कर अपनी गली में रख देता था। गली अंधेरी थी - उसमें कई लोग आते-जाते थे।
दोनों मर कर यमलोक पहुँचे। धन-कुबेर को कम सुविधाओं वाला छोटा सा कमरा मिला। उस निर्धन को सुविधाओं से भर-पूर बड़ा कमरा मिला। धन-कुबेर ने धर्मराज से शिकायत की - “यह भेद आप ने क्यों किया? मैं तो रोज भगवान के मन्दिर में दीपक जलाता था, और वह भी घी का।”
धर्मराज मुस्कुराये और बोले, “पुण्य की महत्ता उसकी कीमत के आधार पर नहीं, कार्य की उपयोगिता के आधार पर होती है। मन्दिर तो पहले से ही प्रकाशमान था। वहाँ पर घी के दिये का क्या प्रयोजन? इस व्यक्ति ने ऐसी जगह पर प्रकाश फैलाया जहाँ से सैंकड़ों लोग आया जाया करते थे। उन सबको दीपक के प्रकाश का लाभ मिलता था। उसके सरसों के तेल के दीपक की उपयोगिता तुम्हारे घी के दीपक से कहीं अधिक थी। उसका कर्म एक लक्ष्य से जुड़ा हुआ था।

मनोयोग से किया गया हर काम योग-साधना है, ईश्वर की पूजा है। अपने काम में जागरूकता, तत्परता और श्रेष्ठता का वरण हमारा कर्त्तव्य है। निष्ठा और लगन से किये गये हर काम में उत्कृष्टता आती है। और, अपने कार्य में उत्कृष्टता लाना दैवीय गुण है। जो कार्य आपको सौंपा गया है, उसमें उत्कृष्ट होकर आप भी देवता बन सकते हो।
सौजन्य : साहित्य कुंज

विचार मंथन

कारोबार में अध्यात्म