प्रस्थानत्रयीके अंतर्गत तीन शीर्ष ग्रन्थ आते हैं, गीता, उपनिषद् एवं ब्रह्मसूत्र। गीता महाभारत का एक अध्याय है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान,भक्ति एवं कर्ममार्ग की व्याख्या की हे वेद के चार भाग हैं-संहिता(मंत्र), ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद्। उपनिषद् वेद का चौथा एवं अंतिम भाग है, इसलिए इसे वेदांत भी कहते हैं। आस्तिक दर्शनों की संख्या छह है। सांख्य (कपिल), योग (पतंजलि), न्याय (गौतम), वैशेषिक (कणाद), पूर्वमीमांसा (जैमिनी) एवं उत्तरमीमांसाअथवा ब्रह्मसूत्र (वादरायण व्यास)। इन छहों दर्शनों में केवल ब्रह्मसूत्र का मुख्य विषय ब्रह्मचिंतनहै। प्रस्थानत्रयीके टीकाकारोंमें शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, मध्वाचार्यएवं रामानंदाचार्यके नाम मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं। आधुनिक युग में डा. राधाकृष्णन ने भी प्रस्थानत्रयीपर टीका लिखी है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्म व्याख्या करते हुए बताते हैं:
मत्त: परतरंनान्यत्किञ्िचदस्तिधनञ्जय।मयिसर्वमिदंप्रोतंसूत्रेमणिगणाइव।
अर्थात् मुझसे (ब्रह्म से) भिन्न ब्रह्माण्ड की सत्ता का दूसरा कोई कारण नहीं है। जैसे मणियां सूत्र में गुंथी रहती हैं, ठीक वैसे ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड मेरे में गुंथा है। भगवान आगे बताते हैं-अहं सर्वस्य प्रभवोमत्त: सर्व प्रवर्तते।अर्थात् ब्रह्मांड में जो कुछ भी है, उसकी उत्पत्ति का मूल कारण मैं (ब्रह्म) हूं। सम्पूर्ण ब्रह्मांड की प्रसूति मुझसे (ब्रह्म से) होती है।
गीता की भांति उपनिषदों में भी ब्रह्मचिंतनकिया गया है। उपनिषद् वेद के ज्ञानकाण्डके रूप में प्रतिष्ठित हैं। उपनिषदों की संख्या वैसे तो 108मानी जाती है पर मुख्य उपनिषद् ग्यारह हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं: ईश, केन, कठ, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर, प्रश्न, छांदोग्यएवं वृहदारण्यक।इनमें से कुछ उपनिषदों में किया गया ब्रह्मचिंतनयहां संक्षेप में प्रस्तुत है। ईश उपनिषद में ब्रह्मतत्त्वकी व्याख्या इस प्रकार की गई है:
ॐपूर्णमद:पूर्णमिदंपूर्णात्पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्यपूर्णमादायपूर्णमेवावशिष्यते।।
अर्थात् ब्रह्म पूर्ण है। यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है। पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनतानहीं आती; वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है। मुण्डकउपनिषद में ब्रह्मनिरूपणके क्रम में ऋषि कहता है:
न तत्र सूर्यो भातिन चन्द्रतारकम्।नेमाविद्युतोभान्ति कुतोऽयमग्नि:।।
अर्थात् सूर्य का प्रकाश अपना नहीं है। चन्द्रमा और तारों में भी प्रकाश की अपनी शक्ति नहीं है। यही बात बिजली के साथ भी है। वास्तविकता तो यह है कि एकमेव ब्रह्म की शक्ति का प्रकाश सभी ग्रहों, नक्षत्रों और वस्तुओं में व्याप्त है। माण्डूक्यउपनिषद् में ब्रह्म के विषय में कहा गया है।
एषसर्वेश्वर: एषसर्वज्ञ एषोऽनन्तर्यामीएषयोनि: सर्वस्य प्रभवाप्ययौहि भूतानाम्।
अर्थात् ब्रह्म सबका स्वामी है। ब्रह्म सर्वज्ञ है। ब्रह्म अंतर्यामी है। ब्रह्म संपूर्ण जगत् की उत्पत्ति का कारण है। ब्रह्म सभी प्राणियों के उदय, उनकी स्थिति एवं प्रलय का स्थान है। तैत्तिरीय उपनिषद् में ब्रह्मनिरूपणके क्रम में ऋषि कहता है :-
जिस मूल स्रोत से सारे प्राणियों का जन्म होता है; जन्म के अनन्तर जिसके आधार पर सभी प्राणी जीवनयापन करते हैं; जगत् के प्रयाण क्रम में जीव जिस परमतत्त्वमें समाहित होते हैं, वही ब्रह्म है। उसी को जानना मानव का परम पुरुषार्थ है।
श्वेताश्वतरउपनिषद् में ऋषि कहता है। ब्रह्म सम्पूर्ण प्राणियों में अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है। वह सभी प्राणियों में व्याप्त है। वह सभी प्राणियों का अंतरात्मा है। वह सभी प्राणियों के कर्मो का अधिष्ठाता है। वह संपूर्ण जीवों का परम निवास है। वह सभी प्राणियों का साक्षी है; चेतनरूपहै; गुणातीत है।
ब्रह्मसूत्र में महर्षि वेदव्यासब्रह्मचिन्तनक्रम में बताते हैं: जन्माद्यस्ययत:। अर्थात् परमतत्त्व(ब्रह्म) वह है, जिससे सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होती है; जिसके सहारे प्राणी जीवित रहते हैं और मृत्यु के उपरान्त जिसमें समाहित हो जाते हैं।
प्रस्थानत्रयीके आधार पर गोस्वामी तुलसीदास ने भी मानस में ब्रह्मव्याख्याकी है।
जगत प्रकास्यप्रकासकरामू। मायाधीसग्यानगुन धामू।।
सम्पूर्ण जगत् ब्रह्म का प्रकाश-क्षेत्र है। प्रकाश का मूल स्रोत ब्रह्म (राम) है। ब्रह्म मायापतिहै और सभी गुणों और ज्ञान का मूल तत्त्व है; अंतिम कारण है। ब्रह्म सबको प्रकाश देने वाला परमतत्त्वहै। प्रस्थानत्रयीके भाष्यकारब्रह्मसाक्षात्कारहेतु तीन मार्ग बताते हैं, ज्ञान, भक्ति एवं कर्म। आचार्य शंकर शुद्ध ज्ञानमार्गीहैं। ज्ञानमार्गका अनुसरण करके साधक स्व एवं पर, आत्म एवं ब्रह्म के बीच ऐक्यभावस्थापित कर लेता है। शेष आचार्य भक्ति की शिक्षा देते हैं। भक्ति मार्ग में साधक ईश्वर का गुणानुवाद करके उनकी कृपा का पात्र बन जाता है। कर्मयोग ज्ञान एवं भक्ति के बीच का मार्ग है। इसमें योगी निष्काम भाव से निर्धारित कर्म करते हुए अपने ध्येय तक पहुंचता है।
वंशीधर त्रिपाठी
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