यदि ईश्वर, यानी परमानंद की प्राप्ति करनी है, तो हमें अपने शरीर को ही माध्यम बनाना होगा।
श्रीमद्भगवतगीतामें श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, मनुष्य जड और चेतन से मिलकर बना है। जड प्रकृति के अधीन है, जबकि चेतन आनंद-स्वरूप है, परमानंद है। यह हम सभी जानते ही हैं कि प्रकृति में जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है। हमारा शरीर भी प्रकृति के अधीन है। शरीर के यौवन में प्रवेश करते ही हम कई प्रकार की भौतिक इच्छाओं से घिर जाते हैं। सच तो यह है कि हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति में इतना मगन हो जाते हैं कि ईश्वर को भी भुला बैठते हैं। वास्तव में, यदि हम ईश्वर, यानी परमानंद की प्राप्ति करना चाहते हैं, तो हमारा शरीर ही माध्यम बन ही सकता है। और इसके लिए हमें अपने अंत:करण की आवाज सुननी ही होगी।
भक्तिकाल के अधिकतर भक्तों और संतों ने ईश्वर को धन्यवाद देते हुए कहा है-हे प्रभु! आपने हमें यह शरीर दिया है, जिसके माध्यम से हम आपकी स्तुति कर पाते हैं। महावीर, बुद्ध आदि अनेक महात्माओं ने कठोर तप से अपने शरीर को ही ईश्वर प्राप्ति का साधन बना लिया। वास्तव में, जिस परमात्मा से हम मिलना चाहते हैं, वे कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे शरीर में ही मौजूद हैं। इसीलिए जीससने इस शरीर को टेम्पल ऑफ लिविंग गॉडकहा है।
भारतीय परम्परा में ऋषि-मुनि इसे नर-नारायणी देह कह कर याद करते हैं। सच तो यह है कि यह वह शरीर है, जिसे नारायण ने खुद पैदा किया है और जिसके अंदर वे स्वयं बैठे हैं। गुरु नानक ने इस शरीर को हरिमंदिर कहा है, अर्थात जिसमें हरि स्वयं निवास करते हैं। संत पलटूकहते हैं, साहब-साहब क्या करे, साहब तो तेरे पास में। वैसे, वेद, उपनिषद् भी इस कथन का समर्थन करते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यदि ईश्वर हमारे शरीर में मौजूद हैं, तो वे हमें दिखाई क्यों नहीं देते हैं? आंखें बंद कर लेने पर सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा क्यों नजर आता है? भारतीय हिंदू धर्मग्रंथों के विश्लेषण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि हमारे शरीर और ईश्वर के मध्य कोई रुकावट नहीं है।
जरूरत है, सिर्फ स्वयं को तलाश करने की, यानी अंतरात्मा की आवाज को सुनने की।शंकराचार्य के अनुसार, शरीर के प्रति आसक्त हो जाना ही बन्धन है। महात्मा बुद्ध कहते हैं, अपने को पहचानना ही परमात्मा को पहचानना है। जीससइस कथन को इस प्रकार व्यक्त करते हैं दाइ सेल्फ अर्थात सबसे पहले तुम स्वयं को पहचानो। क्योंकि जब तक तुम स्वयं को नहीं पहचान पाते, परमात्मा को कभी नहीं पा सकते। वास्तव में, जिंदगी की भागमभाग में हम अध्यात्म से दूर होते जा रहे हैं। और दरअसल, इसी वजह से हम अपने आप के प्रति इतना अधिक असंतुष्ट और अतृप्त हो गए हैं कि हमारा झुकाव कई तरह के दुर्व्यसनों के प्रति दिन बदिन बढ ही रहा है। इसके परिणामस्वरूप एक इनसान दूसरे इनसान के प्रति हिंसा और नफरत की आग फैला रहा है।
हमें यह याद रखना चाहिए कि मनुष्य शरीर की प्राप्ति हमारे सद्कमरेंका परिणाम है। इसलिए जो व्यक्ति अध्यात्म के मार्ग से ईश्वर को पाना चाहते हैं, उनके लिए शरीर मंदिर का प्रवेश-द्वार है। दरअसल, ऐसा व्यक्ति दूसरों के लिए नफरत नहीं मांगते हैं, बल्कि सबका भला चाहते हैं।
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