राधा और कृष्ण का आकर्षक

एक राधा और कृष्ण का आकर्षक अनेक रंगों और रूपों में चित्रित हुआ है।
'कर मोहन सों यारी, हे राधा प्यारी !'
जब मोहन ने खर्चा भेजा चार मोहर एक सारी
एक सारी पहन राधा मँदिर में भैठीं ङँस रहे लोग-लुगाई !
जब मोहन ने पाती भेजी लिख दिया प्यारी प्यारी एक '
लोक-मन ने उनके प्रेम को कभी स्वकीया की मान्यता नहीं दी इसीलिये इस गीत में पत्र और खर्चा भेजने की बात हैं । हर युग अपनी मान्यताओं के अनुरूप अभिव्यक्ति देता रहा और यह संबंध स्वकीया से भी अधिक दृढ़ और विश्वसनीय होकर सर्वस्वीकृत हो गया । पारस्परिक निष्ठा और गहनता ने उसे मान दिया उसे पूजा की वस्तु बना दिया ।
अपनी पत्नियों के साथ कृष्ण के मन्दिर कहीं हों या न हों राधा के साय़ वे हर मंदिर और हर गीत में जुड़े रहे हैं । उनका प्रेम शारीरिकता और सामाजिकता की सीमा से परे था । परकीया या मित्रता जो जैसा माने ! राधाकृष्म के प्रेम को कितने भावों में कितने रूपों में अंकित कया गया है । वास्तव में राधा-कृष्ण का सामीप्य केवल बाल्यवस्था का, उनके मधुपुरी जाने से पूर्व का है।
उस की भंगिमा भिन्न है। अलग रह कर वह गहराता जाता है। उसके बाद एक बार दोनों की भेंट तब होती है प्रभास तीर्थ में ब्रज भूमि से गोपों की एक टोली भी आई है । यहाँ पत्नी और सखी का अंतर साने आता है ।
रुक्मिणी अधिकार संपन्ना है विवाहिता, पटरानी, संतान की जननी । पर कहीं बहुत विवश है । इतना ही विवश राधा का पति रहा होगा, यद्यपि उसका वर्णन कहीं नहीं मिलता । पत्नी जानना चाहती है, पति की बचपन की सखी, जो आज भी उसके मन में विराजती है, कैसी है। एक साधारण गोपबाला कैसे इतनी महत्वपूर्ण हो गई ? वह कृष्ण से पूछती है 'बालापन' की जोरी के विषय में ।
वे इशारा करते हैं - वह ठाड़ी उन जुवति वृन्द मँह नीलवसन तन गोरी ।' लोकाचार में रुक्मिणी कहाँ पीछे थीं, राधा से प्रीतिपूर्वक भेंटीं 'बहुत दिनन की बिछुरी जैसे एक बाप की बेटी। ' (- सूरदास) पर सौतिया डाह तो सगी बहनों में भी द्वेष भर देता है।
रुक्मिणी ने राधा को निमंत्रित किया - मन में कहीं था कि कहाँ गाँव की छोरी राधा और कहाँ द्वारकाधीश कृष्ण का यह ऐश्वर्य ! देख कर चौंधिया जायेंगी उसकी आँखें ।कृष्ण ने उनके आगमन के उपलक्ष्य में पुर की नवीन साज-सज्जा करवाई ।
अपनी बालसखी को रथ पर बैठा कर पुर का भ्रमण जो करवाना था ।आतिथ्य के प्रति रुक्मिणी अति सजग रही - कृष्ण से पूछ-पूछ कर राधा की रुचियाँ जानी । रानियों की दृष्टि उसकी की वेष-भूषा पर टिकी है -सतरँग लहंगा, नीली ओढ़नी, कानों में कर्ण फूल,कंठ में वनफूलों की माला पहने है राधा! मुख पर सौम्य शान्ति और परम तुष्टि !
उसके अभौतिक लगते रूप के आगे रानियों के रूप-श्रृंगार फीके लगने लगे। टीस सी उठी रुक्मिणी के हृदय में । आठों पटरानियों की देख-रेख में छप्पन भोगों की रसोई बनी । राधा भोजन करने बैठी । कृष्ण की चाव भरी दृछ्टि राधा के मुख पर! उसके मुख के ग्रास का स्वाद क्या श्याम को आ रहा है ! '
तुम भी खाओ न मोहन, बस मुझे ही खिलाते रहोगे !'
ऐसे चाव से कभी पत्नियों को खिलाया था !नहीं, पत्नी तो पति को खिला कर स्वयं तृप्त पाती है और श्याम राधा के भोग से स्वयं तृप्त हो रहे हैं । कृष्ण ने कहा था तुम पत्नी हो सब अधिकार प्राप्त प्रिये ,राधा अतिथि है। आई है चली जायेगी, क्या ले जायेगी तुम्हारा !?
रुक्मिणी ने गहरी साँस भरी -क्या ले जायेगी ? तुम्हारे मन का जो कोना सुरक्षित है उस के लिये ! वहा मैं नहीं हूँ । केवल वही विराज रही है । इस भाव भरे अभिनन्दन के लिये क्या नहीं निछावर किया जा सकता !सौभाग्यशालिनी है राधा कि कृष्ण के सारे एकान्त क्षण उसे समर्पित हैं ।
कृष्ण के साथ द्वारका -भ्रमण कर लौटी राधा । भोजन कर शैया पर विराजीं ,रुक्मिणी स्वयं दुग्ध का पात्र लेकर पहुँचीं, 'लो बहिन ,स्वामी को अब तक स्मरण है कि रात्रि-शयन से पूर्व तुम दुग्धपान करती हो। कहीं चूक न हो जाये उन का विशेष आग्रह है ।'
मनमोहन का उल्लेख सुन आत्मलीन राधा मुस्कराईं और पात्र हाथ में ले झटपट दूध पी लिया ,रुक्मिणी स्वयं खड़ी थीं रिक्त पात्र लेने के लिये । रात में रुक्मिणी ने पाया कृष्ण के चरणों में छाले पड़े है ।'क्या बिना उपानह पैदल पुरी घुमाते रहे उन्हें, जो चरणों छाले डाल लाये ?' वाणी में किंचित तीक्ष्णता थी।
पत्नी की मुख मुद्रा देखते रहे कुछ पल वे ,उनके मन मे क्या चल रहा है वह नहीं अनुमान पाई ।'तुमने राधा को इतना गर्म दूध पिला दिया ? सारे किये- धरे पर पानी फिर गया हो जैसे - रुक्मिणी एकदम अवाक् ,हतप्रभ ।
आगे पूछने -कहने को बचा ही क्या था !

विचार मंथन

कारोबार में अध्यात्म