अविरत यात्रा के लेकर आपका फीडबैक हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण है। चलिए तो आज आपके फीडबैक को आधार बनाकर ही चर्चा की शुरुआत करते हैं। अविरत यात्रा को बेहद पसंद करने वाले एक सज्जन थोड़ा सा नाराज हैं। वजह यह कि आजकल इस ब्लॅाग में संसारिकता बढ़ गई है और आध्यात्मिकता घट गई है। उनका इशारा पिछले दिनों गणतंत्र दिवस और सुभाष जयंती के पोस्ट के बारे में था। भई कौन क्या कर रहा है, इस प्रपंच से मन को हटाकर भगवत भजन में लगाना चाहिए।
लेकिन दूसरी ऒर कुछ युवा मित्रों ने खुशी जाहिर की है। इन्हें लगता है कि अगर देश समाज की लौकिक समस्यों पर चर्चा की जाए तो ज्यादा बेहतर होगा। ये धर्म और अध्यात्म को या तो बुढ़ापे की विषयवस्तु समझते हैं या फिर पलायनवाद।
धार्मिकता के बारे में हमारे यहां बहुत ही गलत धारणाएं हैं। जो धार्मिक हैं और जो धार्मिक नहीं हैं, दोनों में यह धारणा समान रूप से व्याप्त है। धार्मिक होने को सीधे सन्यासी होना मान लिया जाता है। लोग कहते हैं कि भईया अगर इतने ही बड़े महात्मा हो तो यहां ये नौकरी क्यों कर रहे हो, जाऒ जाकर हिमालय में समाधि लगा लो। और जो लोग परमात्मा की कृपा से धर्मपरायण हैं, उन्हें सच में लगता है कि कहां इस जगत प्रपंच में फंसे हैं। उनका प्राण सच में सब कुछ छोड़कर हिमालय में समाधि लगा लेने के लिए व्याकुल रहते हैं।लेकिन जरा देखिए वेदों का सार कहा जाने वाला ईशोपनिषद अपने पहले ही श्लोक के जरिए हमें सुख भोग की तकनीकी सिखा रहा है-
ॐ ईशावास्यमिदं सवॆं यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुज्जिथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।
इस परिवर्तनशील जगत् में जो कुछ है, वह ईश्वर से आच्छादित होना चाहिए। उनका त्याग पूर्वक उपभोग करो। किसी के धन का भी लोभ न करो।
यह मंत्र कहता है कि तेन त्यक्तेन भुज्जीथा, त्याग द्वारा अपना पोषण करो। यह संसार भोगने योग्य है, और हमें इसे मजा लेकर भोगना चाहिए।
वेदान्त की भाषा में अगर हमें इस संसार को भोगना है तो हमें इसे नकारना भी होगा और स्वीकारना भी होगा।अब जरा देखते हैं कि जगतगुरु शंकराचार्य इस बारे में क्या कह रहे हैं-
मूढ़ जहीहि धनागम तृष्णाम कुरु सद् बुद्घि मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निज कर्मोपाशम्। वित्तं तेन विनोदय चित्तम्॥
यानि कि 'ऒ मूर्ख! धन की अतिकामना छोड़।' जगतगुरु धन की कामना छोड़ने के लिए नहीं कह रहे हैं। उनका आग्रह तो केवल अतिकामना छोड़ने के लिए है। त्यागपूर्वक उपभोग पर जोर देते हुए आगे कहते हैं कि 'निष्काम भाव पैदा कर। अपनी सच्ची मेहनत से जो धन कमाता है उसी से अपने मन और ह्दय को खुश रख।' पैसा कमाना बुरा नहीं है लेकिन धन सच्ची मेहनत से आना चाहिए।
जारी
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विचार मंथन
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- 'हां' कहने का साहस
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- अपने गिरेबान में
- अविरत यात्रा के एक महीने
- अहम् ब्रह्मस्मि
- आइये खिचड़ी की तरह एक दूसरे में रच बस जायें
- आऒ मनाए प्यार का दिन हर दिन
- आखिर ये कौन है जो हमारे न चाहते हुए भी हमसे काम करवा लेता है?
- इस्लाम भाई बहा रहे सरस्वती की धारा
- उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत
- और हमें इसे त्यागपूर्वक भोगना चाहिए
- कर्म प्रधान बिस्व करि राखा
- कृष्ण और गोपिकाएँ
- क्या आप जानते है
- गण का बिखरता तंत्र
- तस्वीरों के झरोखे से मकर संक्राति
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- धर्म की झांकी (गाँधी जी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग से)
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- ध्यान के लघु प्रयोग
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- फिर याद आये सुभाष बाबू
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- भक्ति का दूसरा नाम ही प्रेम है
- भारतीय बन जाएं हम
- मकर संक्रांति के पद: परमानंद दास जी द्वारा लिखे हुए
- यदि मैं कर्म न करूं तो ये सारे लोक नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगे
- यह संसार भोगने योग्य है
- रघुपति राघव राजा राम
- राधा और कृष्ण का आकर्षक
- रामचरितमानस सुंदरकांड
- लेकिन उन्हें हमसे ज़रा भी लगाव नहीं है
- विश्व धर्मं सभा में स्वामी जी का व्याख्यान
- शरीर है मंदिर का द्वार
- श्री हनुमान चालीसा
- समष्टि के लिए व्यष्टि का बलिदान
- सूर्य देवता हमें जीवन देते है
- हृदय तो परमात्मा को पाने के लिए बना है
- हे अमृत के पुत्रों सुनो