ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है

हम सभी पूर्णता हासिल करने के संघर्ष में लगे हैं। आइए आज भी हम पूर्णता की अवधारणा को और स्पष्ट करते हैं और कल से इस पूर्णता को हासिल करने के उपायों पर चर्चा की जाएगी। मुंडकोपनिषद कहता है कि-

स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति।

ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है। (३।२।९)

भारत के असंख्य संतों और ऋषियों ने सदियों से इसी सत्य की शिक्षा दी है। अच्छा मुक्ति का क्या अर्थ है? अमरत्व का अर्थ केवल यह नहीं है कि हम अनंत काल तक जीवित रहेंगे, बल्कि यह चेतना का परिवर्तन है। सामान्य मानव चेतना सिर्फ इंन्द्रियों द्वारा जानी जाने वाली चीजों को ही देख सकती है। उससे परे नहीं देख सकती है। आध्यात्मिक चेतनाबोध होने पर सबसे पहले चेतनाबोध का परिवर्तन होता है। तब व्यक्ति को अनुभव होता है वह देह नहीं अथवा मन नहीं है, अपितु आत्मा है। यह लिख देना या कह देना आसान है, लेकिन इसका प्रत्यक्ष अनुभव अभी मुझे भी नहीं है। खैर, इसके बाद चेतना का विस्तार होता है। तब हमें अनुभव होता है कि हम सर्वव्यापी परमात्मा के अंश हैं। इसके और आगे बढ़ने पर अनुभव होता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्ता है ।

शंकराचार्य विवेकचूणामणि में ऐसे सौभाग्यशाली व्यक्ति के बारे में कहते हैं कि -

जिसकी प्रज्ञा स्थिर है, जिसका आनन्द निरवच्छिन्न है, जिसके लिए जगत् प्रपन्च विस्मृत हो गया है, वह जीव मुक्त कहलाता है। उसकी बुद्धि ब्रह्म में लगी रहती है। इस विश्व के गुण और दोषयुक्त विषयों में जो सब जगह ब्रह्म के दर्शन करता है, वह जीव मुक्त कहलाता है। इस शरीर को चाहें सज्जन लोग सम्मानित करें या फिर दुर्जन लोग अपमानित करें, दोनों ही स्थियों में जो समभाव से बना रहता है, वह जीव मुक्त है। जिस प्रकार नदियों के जल से समुद्र के पानी में विक्रियां नहीं होती है, वैसे ही दूसरों द्वारा दिए गए विषयों से उसके चित्त में कोई चंचलता नहीं पैदा होती है, वह जीव मुक्त कहलाता है।

शुभ और अशुभ सभी तरह के सांसारिक चिंतनों के प्रति उदासीन ये लोग अतिचेतनावस्था में विलीन रहते हैं। परमात्मा की कृपा से इनमें से कुछ सिद्ध पुरुष करुणा रूप बनकर मानव जाति के आचार्यों के रूप में संसार में लौट आते हैं।आज इतना ही। अंतिम लाइन काफी महत्वपूर्ण है। इसे याद रखिएगा।

सीताराम

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