अपने गिरेबान में


अविरत यात्रा में अभी तक ४२ पोस्ट लिखे जा चुके हैं। और इस समय साधन (रास्ता) और साध्य (मंजिल) पर बहस जारी है। साध्य के बारे में काफी बातें की जा चुकी है और अब समय आ गया है कि हम रुक कर जरा एक बार अपने गिरेबान में झांक लें। चलिए मैं साहस जुटाकर अपने गिरेबान में झांकने की कोशिश करता हूं और आप भी कीजिएगा।

सबसे पहली बात यह कि मैं अपना और अपने संसाधनों का बंटवारा किस तरह करता हूं? मैं खुद अपने लिए कितना जीता हूं? दिन के २४ घंटों में दोस्ती यारी के लिए कितना समय निकालता हूं और समाज को क्या देता हूं? मेरी मासिक आय करीब २५००० हजार रुपये है। इसमें से मैं कितना खर्च खुद पर करता हूं? परिवार और दोस्तों पर किया गया खर्च कितना है और समाज के हिस्से में क्या जाता है?
मैं सबसे ज्यादा समय और संसाधन अपने परिवार और दोस्तों पर खर्च करता हूं। इसके बाद खुद पर और सच पूछिए तो समाज के हिस्से में कुछ आता ही नहीं है। तो जब मैं समाज के लिए अपने ५ प्रतिशत संसाधन खर्च करने के लिए भी तैयार नहीं हूं तो समाज सुधार की झंड़ाबरदारी करने, समाज की ठेकेदारी करने का हक मुझे किसने दे दिया। क्या मेरे जैसे व्यक्ति के हाथ में किसी भी व्यवस्था का भविष्य सुरक्षित रह पाएगा जबकि मुझे समाज के मुकाबले अपने परिवार, अपने दोस्तों और खुद के स्वार्थों का पोषण करना ज्यादा रुचिकर लगता है।

अब दूसरी बात प्रसिद्ध परायणता (मशहूर होने की चाहत) की। प्रसिद्धि परायणता दीमक की तरह है। अगर मैं कुछ अच्छा करने के लिए निकलता हूं, तो जाहिर तो पर मुझे प्रसिद्धि भी मिलेगी ही। क्या इस प्रसिद्धि को पचाने की काबलियत मुझ में हैं? अगर नहीं है, तो ये प्रसिद्धि पहले आसमान पर चढ़ाएगी और फिर धड़ाक से जमीन पर गिराने की धमकी देकर जिंदगी भर ब्लैकमेल करती रहेगी। हमें मजबूर करेगी कि हम एक धटिया और अंदर से खोखली व्यवस्था का पोषण करते रहें। भगवा आंदोलन की बात कीजिए या फिर हशिया-हथौड़े के झंड़ाबरदारों की, सबको खा चुकी है यह प्रसिद्धि परायणता। एक सड़ी हुई व्यवस्था के शीर्ष पुरुष बनने से तो अच्छी हमारी आज की जिंदगी है। एक आम इंसान की जिंदगी। ऐसे में एक रास्ता यह है कि हम भगवान से प्रार्थना करें-
हे ईश्वर, मुझे न धन की चाह है। न ही बाहुबल की और न ही इन्द्रिय सुखों की। हे ईश्वर मेरा जन्म सिर्फ आपकी अहैतुकी भक्ति के लिए हो। आपके प्रति मेरी भक्ति सिर्फ भक्ति के लिए हो। मुझे बदले में कुछ नहीं चाहिए।
...और सिर्फ प्रार्थना ही नहीं करनी है, बल्कि इसे जीवन में साकार भी करना है। मैं सच्चे दिल से कोशिश करूंगा, ताकि आने वाले दिनों में आपसे कह सकूं कि मैं भगवान की अहैतुकी भक्ति की ऒर बढ़ रहा हूं। आप भी कोशिश कीजिएगा।आज के लिए इतना ही। कल अपनी बात को और आगे बढ़ाउंगा।
सीताराम
अविरत यात्रा

विचार मंथन

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