कृष्ण और गोपिकाएँ

एस बी कौजलगी

भगवान कृष्‍ण और गोपियों से उनके संबंधों को लेकर हिंदू धर्म के समालोचक आक्षेप लगाते हैं। कृष्‍ण को गहराई से ना समझने वाले लोग भी कृष्‍ण और गोपियों से उनके संबंध की अलग-अलग तरीके से व्‍याख्‍या कर व्‍यंग्‍य करते हैं।
हमारे पुराणों में भगवान की लीलाओं का जो आलंकारिक वर्णन है एवं हमारे भजनीक लोग उनके संबंध में आम तौर पर लोगों को जैसे भजन सुनाते हैं, उनमें प्रत्यक्ष कामवासना की गंध दिख पड़ती है, इसीलिए कुछ लोगों को इस प्रकार के आक्षेप करने का अवसर मिलता है।
क्या वास्तव में भगवान की लीलाओं में कामवासना थी? नहीं, कदापि नहीं! शास्त्रों में यह बात कही गई है कि जो गृहस्थ अपनी विवाहित पत्नी के साथ धर्म पूर्वक संबंध करता है, वह ब्रह्मचर्य का ही पालन करता है।
श्री कृष्ण अनेक पत्नियों के स्वामी होते हुए भी ब्रह्मचारी थे, यह बात तो उपर्युक्त शास्त्रीय व्यवस्था के अनुसार मानने में आ सकती है, परन्तु गोपियों के साथ जो उनका संबंध था, उसमें यह बात लागू नहीं हो सकती, क्योंकि उनका विवाह दूसरे पुरुषों के साथ हो चुका था।
यह ठीक है, परन्तु श्री कृष्ण और गोपियों का संबंध तो पवित्र था। उदहरण के लिए श्री राधिकाजी को ही लीजिए। अन्य सब गोपियों की अपेक्षा उनका श्री कृष्ण पर सबसे अधिक प्रेम था। उनका पति इस बात को जानता थे और यद्यपि पहले उसे यह बात बुरी लगी, किन्तु जब उसे इनके पवित्र प्रेम का वास्तविक तत्व मालूम हुआ तो उसका सारा संदेह जाता रहा।
जब तक प्रेम का असली तत्व हमारी समझ में न आ जाए, तब तक हम इस पहेली को नहीं सुलझा सकते। आजकल हम लोगों ने स्त्री-पुरुष के एक-दूसरे के प्रति होने वाले शारीरिक आकर्षण को ही प्रेम मान लिया है।
वास्तव में यह प्रेम का सबसे नीचा स्वरूप है। सबसे ऊँचा प्रेम तो तब होता है, जब मनुष्य सर्वभूतस्थ्मात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि का प्रत्यक्ष अनुभव करने लग जाता है। नीचे दर्जे के प्रेम का (जिसे काम कहते हैं) शरीर और मन दोनों से संबंध है।
स्त्री और पुरुष के शरीर में एक-दूसरे के प्रति एक प्रकार का पाशविक आकर्षण होता है, साथ ही चित्त को प्रेमास्पद के मानसिक सौन्दर्य का ध्यान करने में आनन्द प्राप्त होता है। दोनों एक-दूसरे के सहवास में आनन्द का अनुभव करते हैं और एक-दूसरे के गुणों को देख-देखकर सुखी होते हैं, किन्तु यह सब इन्द्रियजन्य होने से इसे ऐन्द्रिय प्रेम कहते हैं।
इस प्रेम का व्यक्ति से संबंध होता है, विश्व से नहीं। श्री कृष्ण और गोपियों के प्रेम में यह बात नहीं थी, वह तो महान था, इन्द्रियातीत था और आत्यात्मिक था। पाश्चात दार्शनिक प्लैटो के मत में प्रेम वही है, जिसमें काम का लेश भी न हो। गोपियों के प्रेम का भी यह एक तटस्थ रूप ही है।
श्री कृष्ण मुरलीधर के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह सबके अनुभव की बात है कि संगीत कला कोविद मनुष्य अपने उत्तम संगीत से श्रोताओं को, चाहे वे स्त्री हों या पुरुष, आनन्द से मुग्ध कर सकता है। फिर श्री कृष्ण तो साक्षात्‌ नाद ब्रह्म के स्वरूप ही थे। उनके दिव्य संगीत उपनिषद् सार श्रीमद्भगवद् गीता ने शूद्रों तक के लिए जो उसके अधिकारी नहीं समझे जाते थे, मोक्ष का द्वार खोल दिया है। फिर यदि व्रज की पवित्र हृदया स्त्रियां उन्हें अपना उद्धारक समझकर उनके प्रति अनन्य प्रेम करने लगीं तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है?
गोपियों का श्री कृष्ण के प्रति जो प्रेम था, उसमें भोग की वासना का लेश भी नहीं था। उनकी भोग-वासना को तृप्त करने के लिए तो उनके विवाहित पति थे ही, परन्तु वे पति उनकी आत्मा को शाश्वत आनन्द की जो अभिलाषा थी, उसे पूरी करने में असमर्थ थे। यह कार्य भगवान्‌ श्री कृष्ण ने ही किया।
इन्द्रिय विषयों में विमुग्ध साधारण मनुष्य इस आध्यात्मिक संबंध को हृदयअंगम नहीं कर सकते। इन्द्रियों के परे के विषय में उनका प्रवेश ही नहीं है। श्री कृष्ण ने अपने साहचर्य एवं संसर्ग से गोपियों को इन्द्रियों के परे ले जाकर उस शाश्वत्‌ आनन्द की झलक दिखलाई।
जब श्री रामकृष्ण परमहंस जैसे आधुनिक योगी ने भी स्पर्श मात्र से स्वामी विवेकानन्द जैसे कट्टर नास्तिक की मनोवृत्ति को एक साथ ही पलट दिया, तब योगेश्वर श्री कृष्ण के लिए गोपियों को इन्द्रियों के परे ले जाकर अपने सच्चिदानन्दस्वरूप का साक्षात्कार करा देना तो बिलकुल सहज था।
जो लोग इस प्रकार के संबंधों में भोग-वासना की शंका करते हैं, उनकी मनोवृत्ति इस बात की कल्पना ही नहीं कर सकती कि इंन्द्रियजन्य सुख से परे भी कोई सुख है और वह इसकी अपेक्षा कहीं अधिक ऊंचा एवं पवित्र है, परन्तु तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है-जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥
प्रत्येक मनुष्य अपनी भावना के अनुसार ही दूसरों के गुण-अवगुण तौलता है, इसमें उसका दोष ही क्या है, इसलिए भगवान ने अर्जुन को यह उपदेश दिया है कि अश्रद्धालु तथा मुझ में दोष दृष्टि रखने वाले पुरुषों को यह रहस्य मत सुनाना।

विचार मंथन

कारोबार में अध्यात्म