भक्ति का दूसरा नाम ही प्रेम है

कुलानंद भारतीय
जिसके हृदय में प्रेम नहीं, जिसके हृदय में प्रेम की कसक नहीं, वह तो भगवान को नहीं पा सकता। भगवान को पाने की कसौटी तो एक ही है- प्रेम। जिसके हृदय में प्रेम की तड़पन, आकुलता, व्याकुलता नहीं, भला वह भगवान तक कैसे पहुंच पाएगा। भक्ति का दूसरा नाम ही प्रेम है।
यदि तुम्हारे हृदय में सांसारिक प्रेम भी है, तो उसको भी शुद्ध किया जा सकता है। प्रेम तो प्रेम की कीमत पर ही मिलता है। वासना रहित प्रेम ही ईश्वर है। आत्मा की सबसे प्रिय अनुभूति प्रेम है। प्रेम के रसास्वादन में ही आत्मोल्लास एवं अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। प्रेम आनंद की प्रथम और आखिरी सीढ़ी है।
एक बार एक गोपी अपनी आंखें मूंदकर ध्यान में बैठी थी। एक दूसरी गोपी ने उससे पूछा, 'क्यों री सखी, तू कृष्ण की याद में खो गई क्या?' ध्यान मग्न गोपी ने आंखें खोल कर तुनक कर कहा, 'हां रे, जिसे मैं भूलना चाहती हूं, जिसको अपने हृदय से बाहर निकालना चाहती हूं, वही उठते-बैठते, सोते-जागते मेरे हृदय में बैठा रहता है। इसे बिसराने का बहुत प्रयास किया, लेकिन यह तो मन में तिरछा होकर अड़ गया है। तुम ही बताओ, मैं इसका क्या करूं? कोई उपाय बताओ इसको भूल जाऊं, लेकिन मैं तो अब दिन रात उसी की याद में खोई रहती हूं।'
एक बार कृष्ण बीमार पड़ गए। कई वैद्य, हकीम, चिकित्सक बुलाए किंतु कोई भी उनका कोई ठीक उपचार नहीं कर पाया। बड़ी पीड़ा थी। सभी स्वजन, परिजन, मित्र गण व्यथित थे, तो कृष्ण ने कहा कि यदि कोई भक्त अपने चरणों की धूलि उनके माथे पर लगा दे तो वह शीघ्र ही बीमारी से मुक्त हो जाएंगे। लेकिन अपने चरणों की धूलि उनके माथे पर लगाकर कोई पाप का भागी नहीं बनना चाहता था।
कृष्ण की पटरानियां रूक्मिणी और सत्यभामा ने भी मना कर दिया। जब गोपियों ने सुना कि कृष्ण बीमार हैं और कोई अपनी चरण धूलि उनके ललाट पर लगा दे तो वे रोग मुक्त हो सकते हैं तो वे पाप-पुण्य का सारा भय लांघकर कृष्ण के पास पहुंच गईं। सभी गोपियां अपनी चरण धूलि कृष्ण के माथे पर लगाने के लिए उत्कंठित थीं।
प्रेम कुछ लेना नहीं जानता, वह तो देना ही देना चाहता है। अपना सर्वस्व जो अर्पित करना जानता है, उसी को भगवत प्रेम मिलता है। भागवत वचन में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि गोपियों के मन में मेरा मन है, गोपियों के प्राण में मेरे प्राण हैं। मेरे लिए गोपियां अपने सुख-साधनों का त्याग कर चुकी हैं।
भगवान का प्रेम जीवन के सत्य को देखता है, भगवान का प्रेम मनुष्य के शिवतत्व को देखता है। भगवान का प्रेम हम सबके जीवन के सौंदर्य को देखता है। आप, हम, सब उस परमपिता परमात्मा की अभिव्यक्ति है। प्रेम मनुष्य की महत्तम कसौटी है, बुद्धि की सूक्ष्मता और दय की विशालता से प्रेम की प्राप्ति होती है।
जिसके हृदय में प्रेम, करुणा, दया, सद्भाव के साथ सरलता, सहजता, मानवता का भाव होता है, वही प्रभु को पा सकता है। इसीलिए कबीर ने कहा है- कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर। पीछे-पीछे हरि फिरत, कहत कबीर कबीर।।

विचार मंथन

कारोबार में अध्यात्म