गण का बिखरता तंत्र

बात क़रीब १५ साल पुरानी है। यानि मेरे बचपन की है। सुबह के करीब ७ बजे होंगे। आज घर में काफी गहमागहमी थी। हम लोग स्कूल जाने की तैयारी कर रहे थे। पिता जी दूध और कुछ मेवे लाए थे। इस दिन हमारे यहां खास तौर से खीर बनती थी। बगल वाले तिवारी चाचा ने तो हमारे उठने के पहले से ही बड़ा सा लाउडस्पीकर लगाकर देश भक्ति के गाने बजाने शुरू कर दिए थे। तभी दरवाजे पर नेता जी ने आवाज लगाई। आम तौर पर मैले-कुचैले से कपड़ों में नजर आने वाले नेता जी ने आज झक सफेद कुर्ता पहन रखा था। नेता जी हमारे वार्ड के सभासद थे और पिता जी को बुलाने आए थे। हम लोग भी जल्दी से तैयार होने लगे। हमारे पास खुश होने की दो वजहें और भी थीं। आज हमें जेब खर्च के लिए ५ रुपये मिले थे और स्कूल में लड्डू मिलने वाले थे।

तब वाकई २६ जनवरी राष्टीय पर्व लगती थी। और आज? नई दिल्ली को अर्ध सैनिक बलों ने अपने कब्जे में ले लिया है। परेड के रास्ते में पड़ने वाली सभी दुकानों को सील कर दिया गया है। संगीनों के साये में हम लोक तंत्र सबसे बड़ा पर्व मनाने जा रहे हैं। भारी सुर‌क्षा व्यवस्था मन में असुरक्षा की भावना पैदा करती है। अगर हम गणतंत्र का पर्व मनाने इंडिया गेट जाना चाहते हैं तो वहां जाने के सारे रास्ते बंद हैं। गाड़ियां बंद हैं। अपनी गाड़ी ले नहीं जा सकते। गाड़ी छोड़िए हुजूर मोबाइल फोन, पेन, यहां तक कि एक रुपये का एक सिक्का तक नहीं ले जा सकते हैं। अजीब बात है। ये लोकतंत्र का कैसा उत्सव मना रहे हैं हम?आखिर किस बात से इतना डरे हुए हैं हम? आखिर ये कौन है जिसने हमें इतना डरा दिया है कि अब हमें लगता है कि 'जरा सा चूके नहीं कि मार डाले जाएंगे।' और अगर सच में ऐसा कोई है तो इससे पहले कि वो हमें मारे हम उसे ही क्यों नहीं मार गिराते हैं? गणतंत्र दिवस को राजनेताऒं और नौकरशाहों की रस्मअदायगी का अड्डा बनाकर छोड़ दिया है।हमारा लगभग साठ साल का गणतंत्र अभी तक इस बहस में ही उलझ हुआ है कि हमारी संस्कृति में गंगा का पानी कितना है और यमुना का कितना। खून की तो किसी को परवाह है ही नहीं। नेहरू या गांधी जी में से कोई कहा करता था कि भारत गांवों में बसता है। लेकिन आज जरा गांवों में जाकर देखिए। वहां सिर्फ बच्चे और बूढ़े ही मिलेंगे। जवान लोग मिलेंगे ही नहीं। उन्हें पता है कि गांव से बाहर नहीं निकले तो न उन्हें दो वक्त की रोटी मिलेगी न उनके बच्चों को। लेकिन उनकी बदनसीबी यह है कि शहरों में पत्थर तोड़ने के बाद भी उन्हें ढंग का रोटी और कपड़ा नहीं मिल पाता है। मकान की तो बात ही छोड़ दीजिए साहब।

कैसे बदलेगी ये तस्वीर? लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि कौन बदलेगा यह तस्वीर? दूसरे सवाल का स्पष्ट जवाब हमारे पास है। सिर्फ और सिर्फ हम और आप ही इस सूरत को बदल सकते हैं। और हमें बदलना भी चाहिए। लेकिन हाथ में झंडा उठाकर किसी आंदोलन की शुरूआत से पहले हमें अपने आप को सामर्थवान बनाना होगा। और जिसके अंदर जितना सत्य होगा उसे उतना ही सामर्थ मिलेगा।

विचार मंथन

कारोबार में अध्यात्म