...फिर तुम सबसे मिल सकते हो। तुम्हें कुछ भी पाप स्पर्श नहीं कर सकेगा

कल बात सिर्फ माफी मांगने तक सीमित रह गई थी। आज साधक में क्या गुण हों, इस चर्चा को आगे बढ़ाते हैं। और स्वामी विवेकानंद से बेहतर हमें भला कौन बता सकता है कि साधन पथ पर कैसे अग्रसर हुआ जाए:
कर्म योग कहता है कि पहले तुम स्वार्थपरता के अंकुर के बढ़ने की इस प्रवृत्ति को नष्ट कर दो। और जब तुममें इसे रोकने की क्षमता आ जाए तो उसे पकड़े रहो और मन को स्वार्थ की अंधेरी गलियों में मत जाने दो। फिर तुम संसार में जाकर अपनी ‌क्षमता के मुताबिक कर्म कर सकते हो। फिर तुम सबसे मिल सकते हो। जहां चाहें जा सकते हो, तुम्हें कुछ भी पाप स्पर्श नहीं कर सकेगा। पानी में रहते हुए भी जिस तरह कमल पत्र को पानी स्पर्श नहीं करता है, और उसे भिगो नहीं सकता है, उसी तरह तुम भी संसार में निर्लिप्त भाव से रह सकते हो। मैंने तुम्हें बताया ही है कि अनासक्ति के बिना किसी तरह की साधना नहीं हो सकती है। अनासक्ति सभी तरह की साधन के मूल में है। हो सकता है कि जिस व्यक्ति ने अपना घर छोड़ दिया है, अच्छे वस्त्र पहनना छोड़ दिया है, अच्छा खाना छोड़ दिया है और मरुस्थल में जाकर रहने लगा है, वह भी एक घोर विषयासक्त व्यक्ति हो। बाह्य शरीर के लिए हम जो कुछ करते हैं, उससे अनासक्ति का कोई संबंध नहीं है, वह तो पूरी तरह से मन में रहती है। मैं और मेरे की बांधने वाली जंजीर मन में ही रहती है। यदि शरीर और इन्द्रिय गोचर विषयों के साथ इस जंजीर का संबंध न रहे तो हम बिल्कुल अनासक्त रहेंगे। हो सकता है कि एक व्यक्ति राजसिंहासन पर बैठा हो लेकिन फिर भी पूरी तरह से अनासक्त हो और दूसरी ऒर यह भी संभव है कि एक व्यक्ति चिथड़ों में हो, पर फिर भी बुरी तरह से आसक्त हो। पहले हमें इस प्रकार की अनासक्ति प्राप्त कर लेनी होगी और फिर लगातार काम करते रहना होगा। कर्म योग सभी तरह की आसक्ति से मुक्त होने की कला सिखा देता है।(विवेकानंद साहित्य, खंड ३, पृ ७४-७५)

अब दो बातें और। एक लोग क्या कहेंगे और दूसरी निजी जीवन और सार्वजनिक जीवन के बीच का अंतर। हम में से ज्यादातर लोग लोगों के कहने के आधार पर अपने जीवन की दिशा तय करते हैं। मैं भी करता हूं। लोग क्या कहेंगे, यह सोचकर कई बार हम बुरे कदम उठाने से बच जाते हैं। ये हमारा मन है जो नुकसानदेह कदम उठाने के लिए उकसाता है। मन तो है ही चंचल। लेकिन लोगों के चक्कर में कई बार हम अपनी अंतरआत्मा की आवाज को दबा देते हैं, या फिर अनसुना कर देते हैं। तो मन पर नियंत्रण के साथ हमें लोगों की परवाह करना छोड़ना है। सुनिए सिर्फ अपने दिल की।

अब साहब आप सार्वजनिक जीवन में उतरने के लिए तैयार हो गए हैं। लेकिन एक बात और है। हमारा निजी जीवन कहां पर खत्म होगा और कहां से सार्वजनिक जीवन शुरू होगा। हमारे कई व्यक्तित्व हैं। घर में, आफिस में, दोस्तों के बीच में। अब हम सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की दहलीज पर खड़े हैं। घर में जो काम हम आसानी से कर लेते हैं हो सकता है समाज के बीच न कर सकें। कई बार हमारे ये अलग-अलग व्यक्तित्व दूसरे से मेल नहीं खाते हैं और हमारे लिए एक कशमकश, एक द्वंद्व की स्थिति पैदा हो जाती है। इस द्वंद्व से बचने के लिए जरूरी है कि अलग-अलग व्यक्तित्वों के बीच अंतर को कम किया जाए। और क्रमशः व्यक्तित्व के विभिन्न स्तरों के मिलाकर एक कर दिया जाए।

जर्मनी के कोलोंग नगर के एक राजकुमार, जो मुख्य ईसाई धर्माध्य‌‌क्ष भी था, के बारे में एक कहानी है। एक दिन उसने एक किसान के सामने कुछ अधार्मिक शब्दों का इस्तेमाल किया, जिसे सुनकर किसान को काफी आश्चर्य हुआ। अपनी सफाई में उसने किसान से कहा किः भले आदमी, मैंने अपशब्द धर्मगुरु के रूप में नहीं बल्कि, एक राजकुमार के रूप में कहे थे। इस पर उस किसान ने कहा कि लेकिन श्रीमान जब राजकुमार नरक में जाएगा तो धर्माध्यक्ष का क्या होगा।

हम सभी को याद रखना चाहिए कि अगर हम निजी जीवन और सार्वजनिक जीवन के लिए अलग-अलग नियम बनाएंगे तो अशांति और बंधन के अतिरिक्त हमें कुछ नहीं मिलेगा। सचमुच हम अपने जीवन में एक नर्क का निर्माण कर लेंगे। आज के लिए बस इतना ही।

सीताराम
अविरत यात्रा

विचार मंथन

कारोबार में अध्यात्म