नेता भेजो या फिर खुद ही नेतागिरी करो


कल के पोस्ट ने अनायास ही एक सवाल उछाल दिया है। हमारा सार्वजनिक जीवन हो ही क्यों? धर्म तो नितांत निजी विषय-वस्तु है। इस सवाल पर भी हम चर्चा करेंगे, लेकिन आज तो एक दूसरा ही सवाल हमारे सामने मुंह फैलाकर खड़ा है। हमारे इस पूरे आंदोलन, अभियान या जो चाहें कह लीजिए, उसका नेतृत्व कौन करेगा? झंड़ा कौन थामेगा?

अभी तक हम अपना लक्ष्य तय कर चुके हैं। अमरत्व, इससे कम कुछ भी नहीं। और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें जरा सी भी हड़बड़ी नहीं है।

नाथ योनिसहस्त्रेषु येषु येषु व्रजाम्यहम्।
तेषु तेष्वचला भक्तिः रच्युतऽस्तु सदा त्वयि॥
हे प्रभु, मुझे सहस्त्रों बार जन्म क्यों न लेना पड़े, तो भी तुझमें मेरी अटूट भक्ति सदा बनी रहे। (प्रपन्न गीता ४१)
हे ईश्वर हमें इस जन्म में मोक्ष न मिले, कोई बात नहीं। हम तो बार बार जन्म लेने के लिए तैयार हैं। हमें आपकी भक्ति का वरदान चाहिए। बस और कुछ नहीं।

इस लक्ष्य की ऒर यात्रा आरंभ करने से पहले साधक के अंदर कुछ गुणों का विकास जरूरी है। ये गुण प्रसिद्धि की चाहत का न होना, समाज सर्वोपरि है ऐसे भाव का विकास, स्वार्थ का अंत और समर्पण हैं। मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा कि जिन बातों पर अविरत यात्रा में चर्चा की जा रही है, वे व्यवहारिक नहीं हैं। मैंने कहा कि बातें तो व्यवहारिक ही हैं, लेकिन इस व्यवहार को अपनाने के लिए अभी हम सक्षम नहीं हैं। हम जो कुछ कह रहे हैं, उसे ठीक वैसा ही जीवन में उतार नहीं पा रहे हैं। कह कुछ रहे हैं और कर कुछ और ही रहे हैं।

यानि कि हमारी कथनी और करनी में अंतर है। और अविरत यात्रा नाम के इस अभियान का नेतृत्व वाले व्यक्ति की कथनी और करनी में जरा सा भी अंतर नहीं होना चाहिए। हमने अपने पिछले पोस्ट में चर्चा की थी कि भगवान हमारे कल्याण के लिए ब्रह्म का प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर चुके महापुरुषों में से कुछ को मानव जाति का आचार्य बनाकर वापस धरती पर भेज देते हैं। ऐसे ही किसी ब्रह्मनिष्ठ महापुरूष की खोज कर उनके चरणों में स्वयं को समर्पित करते हुए उनसे कृपा करने, रास्ता दिखाने की याचना करनी चाहिए। सिर्फ ऐसे ब्रह्मनिष्ठ महापुरूष ही हमारा नेतृत्व कर सकते हैं और कोई दूसरा नहीं। और अगर हमें ऐसे महापुरुष नहीं मिलते हैं तो हम भगवान से प्रार्थना करेंगे कि-

हे सच्चिदानंद परमात्मा, जब तक आप हमें आत्म सा‍क्षात्कार कर चुके महापुरुष की कृपा का पात्र नहीं बना देते हैं तब तक आप ही संभालो हमारी अविरत यात्रा। या तो नेता भेजो या फिर खुद ही नेतागिरी करो।
आज के लिए इतना ही

सीताराम
अविरत यात्रा

विचार मंथन

कारोबार में अध्यात्म