यदि मैं कर्म न करूं तो ये सारे लोक नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगे

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खैर, चलिए अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं। कल एक सवाल छूट गया था। धर्म तो निजी मसला है, तो फिर इसकी सार्वजनिक चर्चा क्यों? संगठन की क्या जरुरत है? और अगर ईश्वर की प्रप्ति ही करनी है तो एकांत में भजन कीर्तन करना चाहिए। इस तरह जगत प्रपंच में क्यों फंसना?
अच्छा जरा देखिए श्रीकृष्ण गीता में क्या कह रहे हैं-
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥ (अध्याय २-२०)
राजा जनक आदि केवल कर्म द्वारा ही उत्तम सिद्धि हासिल कर सके थे। इसलिए संसार के कल्याण के प्रति दृष्टि रख कर तुम्हें भी कर्म करना चाहिए। हमारी मुक्ति का यही एक मात्र उपाय है। दूसरा नहीं। कर्म के महत्व रेखांकित करते हुए श्री भगवान कहते हैं कि यदि मैं कर्म न करूं तो ये सारे लोक नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगे। हे पार्थ अगर मैं कर्म में न प्रवृत्त होउूं तो सारे मनुष्य मेरा ही अनुसरण करेंगे। इसलिए मैं कर्मरत रहता हूँ। भगवान चाहते हैं कि हम कर्म में लगे रहें।
आगे कहते हैं कि -
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथास्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥ (अध्याय २-२५)
हे अर्जुन कर्म में आसक्त होकर अज्ञानी लोग जिस तीव्रता से कर्म करते हैं, ज्ञानियों को अनासक्त रह कर लोगों के कल्याण की इच्छा से उसी तीव्रता के साथ कर्म करते रहना चाहिए।
यहां श्री कृष्ण बार बार अनासक्ति पर जोर देते हैं। हम कर्म से विरत तो रह ही नहीं सकते हैं। संसार सागर में तो उतरना ही पड़ेगा। हमारे लिए मुक्ति का एक मात्र यही रास्ता है।आज के लिए इतना ही।
सीताराम
अविरत यात्रा

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