हे अमृत के पुत्रों ! सुनो !


कल बात अधूरी रह गई थी। शुरूआत पवन जी की एक टिप्पणी से करते हैं। पवन जी 'अहम् ब्रह्मस्मि' पोस्ट के बारे में कहते हैं कि-
'यह कर्म की कौन सी परिभाषा है? क्या भगवान से मिलन करने और आध्यात्म की काली गुफा में खुद को इस कदर धकेल लेने से इस साधु की जिम्मेदारियां खत्म हो जाती हैं?'
इस टिप्पणी में पवन जी ने तीन मुद्दे उठाए हैं। कर्म की परिभाषा, क्या भगवान से मिलन और आध्यात्म का मार्ग काली गुफा में प्रवेश करने जैसा है और तीसरा मुद्दा जिम्मेदारियों का उठाया गया है।
चलिए पहले से शुरुआत करते हैं। कर्म की परिभाषा
विज्ञानं कार्य को परिभाषित करते हुए कहता है कि बल और विस्थापन का गुणनफल ही कार्य है। यानि कि बल चाहें जितना भी लगा लीजिए, अगर लक्ष्य कि ऒर अग्रसर नहीं हुए तो हम कर्म नहीं कर रहे हैं। अच्छा हमारा लक्ष्य क्या है? संभव है आपका लक्ष्य ऑफिस में सुपर बॉस बनना हो। लेकिन अपने सुपर बॉस (जो कभी आपकी तरह ही सुपर बॉस बनना जीवन का मकसद समझते थे) से जाकर पूछिए, वे आज अपने जीवन से संतुष्ट नहीं हैं। उन्हें तो कुछ और ही चाहिए।
कुछ ऎसी ही स्थिति अर्जुन की भी थी। वह योगेश्वर श्री कृष्ण से कहता है -यच्छेयः स्यान्निश्चतं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥अध्याय-२, श्लोक-७॥ हे योगेश्वर मेरे लिए जो निश्चितकल्याणकारी हो, वह साधन कहिए। मैं आपका शिष्य हूं। आपकी शरण में हूं। मुझे साधिए।तब भगवान उसे कर्म के बारे में बताते हुए कहते हैं-कर्म आराधना की एक विशेष विधि है जो आराध्य देव तक पहुंचा कर उसमें विलय दिलाती है। 'अन्यत्र लोकेऽयं कर्मबंधनः' इसके अतिरिक्त संसार में सब कुछ कर्म बंधन है। ये साधू इस बात को मानते हैं। जानते हम भी हैं, लेकिन मानते नहीं हैं। इस कर्म में इंद्रियों का दमन, मन का शमन और दैवी सम्पद का अर्जन करना पडता है। ऐसा कृष्ण कहते हैं और ये साधू इंद्रियों के दमन और मन के शमन के अलावा और क्या कर रहे हैं। हमारे रोज मर्रा के कामों के मुकाबले इन साधुऒं का पेड से लटकना कर्म की परिभाषा के अधिक निकट है। और कर्म की यह परिभाषा मेरी नहीं कृष्ण की है।
अब दूसरी बात। क्या भगवान से मिलन और आध्यात्म का मार्ग काली गुफा में प्रवेश करने जैसा है?
काली गुफा मतलब जहां से अंत में कुछ भी हासिल नहीं होगा, अंधकार के सिवाए। भोग की कामना और अधिक से अधिक संपत्ति जोड लेने की चाहत हमें क्या देती है? इस संसार से अंत में कुछ भी हाथ नहीं आना है। न हाथी है न घोड़ा है वहां पैदल ही जाना है. तो फिर अंधकार की काली गुफा तो ये संसार है न, जहाँ से अंत में कुछ भी हाथ नहीं आना है.
मेरी मृत्यु निश्चित है। ये जो मैं फलां कंपनी का मालिक हूं, या मेरी एक अदा पर लाखों लोग मर जाते हैं, ये सब खत्म हो जाएगा। तो क्या मेरा वजूद, मेरी जो पहचान है वह खत्म हो जाएगी?
और तभी एक वैदिक ऋषि प्रचंड स्वर में जयघोष करते हैं-

शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥२।५॥

वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-

मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति

नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ ॥३।८॥'

हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो ! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, तो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं ।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २।५, ३।८ ॥

हमें अमृत का पुत्र बताने वाली ये आवाज हमें किसी काली गुफा में नहीं ले जा रही है। धर्म और अध्यात्म का सही स्वरूप तो हमें प्रकाश की ऒर ले जाता है.

अब तीसरी और अंतिम बात जिम्मेदारियों की। क्या हम जिम्मेदार हैं? जिम्मेदारियों के मायने क्या हैं हमारे लिए? अगर समाज ने अपना संचित ज्ञान हमें न दिया होता तो हम अपना सारा जीवन सिर्फ आग की खोज और कपडा पहनना सीखने में ही बिता देते। तो क्या समाज के प्रति हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है? और अगर बनती है तो क्या हम उसे निभा पा रहे हैं? माता पिता ने हमें यह जीवन दिया है, अंगुली पकड कर चलना सिखाया है लेकिन उनसे सौकडों किलोमीटर दूर बडे महानगरों में आरामदेह जीवन बिताने को सफलता माना जा रहा है! आज की व्यक्तिवादी व्यवस्था में जिम्मेदार होने का मतलब सिर्फ स्वार्थी होना है। हमसे ज्यादा जिम्मेदार तो ये साधू हैं जो हमें याद दिलाते हैं कि - और भी गम है ज़माने में मोहब्बत के सिवा ....







विचार मंथन

कारोबार में अध्यात्म